रांची: असम की चाय बगानों में झारखंड की मजदूरों की चिंता करने में 170 साल लग गए । जी हां 1841 में पहली बार जबरन असम की चाय बगान जाने वाले आदिवासियों के वशंज भी शायद नहीं बचे् हों क्योंकि उनमें से ज्यादातर रास्ते में ही बीमारियों से मारे गए थे । हेमंत सोरेन सरकार ने असम में काम कर रहे झारखंडी मजदूरों की स्थिति के बारे में जानकारी हासिल करने और उन्हें उनका हक दिलाने के लिए कैबिनेट में बड़ा फैसला लिया है।
हेमंत सोरेन कैबिनेट का फैसला
हेमंत सोरेन कैबिनेट के फैसले के मुताबिक असम राज्य में झारखंड मूल की चाय जनजातियां जिसे असम में अन्य पिछड़ा वर्ग का दर्जा प्राप्त है, उन्हें उनके सांस्कृतिक, सामाजिक तथा आर्थिक कल्याण के लिए राज्य सरकार द्वारा मंत्री, अनुसूचित जनजाति, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक एवं पिछड़ा वर्ग कल्याण विभाग के नेतृत्व में एक समिति का गठन कर उनके आर्थिक एवं सामाजिक सर्वेक्षण कराकर उन्हें उनका हक-अधिकार प्रदान करने हेतु राज्य सरकार पहल करेगी।
चाय बगानों से कितना फायदा ?
जाहिर है असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा के बार-बार झारखंड आने और यहां की राजनीति में दखल देने की वजह से हेमंत सोरेन ने एक ऐसा फैसला किया है जिसका असर दूरगामी पड़ने वाला है । असम की अर्थव्यवस्था में वहां के चाय बगान 5000 करोड़ रुपए का योगदान है जबकि तीन हजार करोड़ रुपए फॉरेन एक्सचेंज के जरिए हासिल होते हैं इतना ही नहीं वहां की चाय बगानों में लगभग सात लाख मजदूर काम करते हैं जिनमें से सत्तर फीसदी संताल परगना और झारखंड के अलग-अलग इलाकों के आदिवासी और मूलवासी हैं ।
जब भू-स्वामी मजदूर बन पहुंचे असम
1840 के दशक के दौरान, छोटा नागपुर क्षेत्र में आदिवासी लोग ब्रिटिश नियंत्रण के विस्तार के खिलाफ विद्रोह कर रहे थे, और असम में चाय उद्योग के विस्तार के लिए सस्ते श्रमिकों की कमी के कारण ब्रिटिश अधिकारियों ने मुख्य रूप से आदिवासियों और कुछ पिछड़ी जाति के हिंदुओं को अनुबंधित मजदूरों के रूप में असम के चाय बागानों में काम करने के लिए भर्ती किया। असम की यात्रा के दौरान हजारों मजदूर बीमारियों के कारण मारे गए, और सैकड़ों लोग जो भागने की कोशिश कर रहे थे, उन्हें ब्रिटिश अधिकारियों ने अनुबंध तोड़ने की सजा के रूप में मार डाला।
असम की चाय में झारखंड का खून पसीना
1841 में असम कंपनी द्वारा पहली बार मजदूरों को भर्ती करने का प्रयास किया गया। इस प्रयास में 652 लोगों को जबरन भर्ती किया गया, लेकिन हैजा फैलने के कारण उनमें से अधिकांश की मृत्यु हो गई। जो बचे थे, वे भाग गए। 1859 में ‘वर्कमेन ब्रेच ऑफ कॉन्ट्रैक्ट एक्ट’ पारित किया गया, जिसने अनुबंधित मजदूरों के अनुबंध तोड़ने पर कठोर दंड, जैसे कोड़े मारने, को लागू किया। इसने अनुबंधों के माध्यम से असम के बाहर से मजदूरों की भर्ती करके बागानों में श्रमिकों की कमी को कम किया। “अरकट्टी” या बिचौलियों को क्षेत्र के बाहर से मजदूरों की भर्ती के लिए नियुक्त किया गया था। 1870 में, मजदूरों की भर्ती के लिए “सरदारी प्रणाली” पेश की गई।
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असम की चाय में झारखंडी उबाल
जाहिर है राजनीतिक और आर्थिक तौर से हेमंत सोरेन कैबिनेट के इस फैसले का बड़ा असर हो सकता है । पहला तो वहां की सरकार पर झारखंड के आदिवासियों को एसटी का दर्जा दिलाने की मांग पर जोर पड़ेगा और दूसरी और आर्थिक तौर से उनके योगदान को सम्मान भी मिलेगा ।