कैलेंडर का क्या है धर्म से नाता ?
नया साल आ गया । इसलिए आया क्योंकि एक जनवरी है । जनवरी नहीं होता तो क्या नए साल का आगमन नहीं होता ? धार्मिक कट्टरता वाले नए साल को अपने नजरिए से देखते हैं । हिन्दू कहते हैं ये हमारा नया साल नहीं है , मुसलमान और यहां तक की एक जमाने में ईसाइयों का भी यही मानना था कि एक जनवरी की तारीख नए साल के लिए सही नहीं है । मगर सवाल ये उठता है कि एक जनवरी क्या सिर्फ कैलेंडर की सिर्फ एक तारीख है और क्या वाकई में इसके पीछे धार्मिक आस्था है । हिन्दुओं के धार्मिक ग्रंथ समेत दुनिया भर के धार्मिक ग्रंथों में साल की तारीख, महीना, सप्ताह और दिन कैसे तय होता आया और कैसे ये मान लिया गया कि एक जनवरी ही
वर्ष की पहली तारीख होगी । इन प्रश्नों के उत्तर जितने दिलचस्प है और उतने ही विवादित है ।
बहरहाल क्या आपको मालूम है सदियों पहले 445 दिनों का एक वर्ष हो गया था । यकीन करना मुश्किल है मगर ये हकीकत है कि जब रोमन सम्राट ने ईसा पूर्व 44 वें वर्ष में मिस्र पर फतह हासिल की तो उन्होंने इजिप्शियन एस्ट्रोलॉजर सोशोजिन के कहने पर कैलेंडर में लीप ईयर जोड़ दिया । अब 46 ईसा पूर्व के कैलेंडर को सही करने के लिए फरवरी 23 दिनों का रखा गया और फिर नवंबर और दिसंबर के बीच 67 दिन जोड़ दिए गए लिहाजा ये पूरा वर्ष हो गया 445 दिनों का । इतिहास में इसे कहते हैं ‘ईयर ऑफ कन्फ्यूजन’ ।
ईसाई कैलेंडर का नहीं है ईसायित से लेना देना
तो रोमन कैलेंडर जिसे क्रिश्चयन कैलेंडर भी कहते हैं का पूरी दुनिया पर असर रहा तो है पर हैरानी होगी ये जानकर की इसका ईसायित से कुछ लेना देना नहीं है। रोमन कैलेंडर असल में उत्तर यूरोप के आदिवासियों का कैलेंडर था जो अपने वर्ष की शुरुआत बसंत के महीने यानि 1 मार्च से 25 मार्च के बीच करते थे , 304 दिनों के साल होते थे जो 25 दिसंबर को खत्म होता था ये दिन बड़ा दिन होता था । शेष बचे हुए 61 दिन हाइबरनेशन के माने जाते थे क्यों भयानक ठंड की वजह से कोई काम नहीं हो पाता था । बाद में रोम ने भी इसी कैलेडंर को अपनाया जिसमें जुलिसय सीजर ने सुधार किया ।
…और इस तरह 1 जनवरी हो गया साल का पहला दिन
कैलेंडर की इस कहानी में दिलचस्प बात ये भी है कि 45 ईसा पूर्व रोमन सम्राट चाहते थे कि साल की शुरुआत 25 दिसंबर से हो क्योंकि शीलकालीन अयनकाल (उस समय की एस्ट्रोनॉमी के अनुसार )इसीदिन है। लोगों ने
इसका विरोध किया क्योंकि नए चांद के आने की तारीख 1 जनवरी थी और इसे शुभ माना जाता था , जुलियस सीजर को झुकना पड़ा और 1 जनवरी को साल की पहली तारीख । तो इस तरह से आज से 2077 साल पहले
पहली जनवरी को नया साल तय हो गया । इसके साथ ही जुलियस सीजर के सम्मान में क्विलिंटिस महीने का नाम बदल कर जुलाई कर दिया गया और 8 ईसा पूर्व सेक्सलिंटस को ऑगस्टस सीजर के नाम पर अगस्त कर
दिया गया । कहा तो ये भी जाता है कि फरवरी के 2 दिनों को काट कर जुलाई और अगस्त को 31 दिनों का महीना जुलिसयस और ऑगस्टस सीजर के सम्मान में किया गया ।
सप्ताह में 7 दिन ही क्यों ?
कैलेंडर कथा चली है तो आपको बता दें कि 7 दिनों के सप्ताह की कहानी भी उतनी ही रोचक है जितनी कि 365 दिनों का एक वर्ष । जी हां महीने में कितने दिन होने चाहिए ये तो लगभग तय हो चुका था मगर सप्ताह में
सात ही दिन क्यों हो ये जानना भी बेहद दिलचस्प है । क्या ईश्वर प्रदत्त है सप्ताह के सात दिन या फिर मानव निर्मित । इस सवाल के जवाब की तलाश में वैदिक काल की ओर देखें तो वहां तो 6 दिनों का ही सप्ताह होता था ।
इजिप्शनियन लोग 10 दिनों का एक सप्ताह मनाते थे और बेबोलोनियन लोग आमवस्या के आठवें, पंद्हवें और 22वें दिन को धार्मिक कार्यों के लिए रखा गया इसलिए आखिरी सप्ताह आठ या नौ दिनों का हो जाता था ।
प्राचीन ईरान में हर दिन के लिए अलग नाम थे और सात दिनों के अतंराल पर धार्मिक कार्य के लिए दिन ए परवन रखा गया था। ईस्वी सन की शुरुआती शताब्दी में जब न्यू टेस्टमामेंट लिखा गया तब तक को सप्ताह के सातों
दिन के नाम तक तय नहीं थे । इसीलिए ईसा मसीह को कब सलीब पर चढ़ाया गया और कब वे स्वर्ग की ओर रवाना हुए इसा दिन की जानकारी नहीं थी । बहुत बाद में पाचंवीं शताब्दी में शुक्रवार और रविवार के दिन तय
हुए । सप्ताह के दिन सात होंगे और सात का जादुई अंक असीरियन खगोलविदों की देन है । उनका मानना था कि सूरज और सात ग्रह उनके राजा का भाग्य तय करते हैं इसलिए उन्होंने ग्रहों और सूर्य का गहन अध्ययन किया ।
बेबोलोनियन एस्ट्रोलॉजर्स के मुताबिक सात दिनों के नाम थे
निनाब (शनि) महामारी और दुर्दिन के देवता
मारदुक (गुरु) देवताओं के राजा
नेरगल (मंगल) युद्ध के देवता
शमशाह (रवि)न्याय और विधि व्वयस्था के देवता
ईश्तार (शुक्र) फर्टीलिटी के देवता
नबु (बुध) लेखन के देवता
सिन (चंद्रमा) कृषि के देवता
इस तरह संडे का जन्म हुआ…
बाद में उन्होंने दिन को 24 घंटों में बांटा, वे मानते थे कि हर दिन के देवता दुनिया पर नजर रखते हैं । हालांकि सप्ताह के सात दिनों का चलन पूरी दनिया में एक जैसा नहीं था । ना हिन्दू और ना ही ईसाइयों में इसका प्रचलन आम था । 323 ईस्वी में रोमन सम्राट कॉन्स्टनटाइन ने यहूदियों के शैबथ को संडे में बदल दिया । भारत में भी इसी समय से सप्ताह के सातों दिन प्रचलित है । ना वेदों में और ना ही दूसरे प्राचीन ग्रथों में सप्ताह के सातों दिनों का जिक्र मिलता है । माना जाता है कि किसी भी राष्ट्र के धार्मिक जीवन में सप्ताह के सात दिनों का महत्व नहीं रहा था ये पूर्णतःमनोवैज्ञानिक है ।
5 अक्टूबर 1582 को कैलेंडर का हैप्पी बर्थ डे
बहुत सालों बाद खगोलविदों और वैज्ञानिकों और धार्मिक नेताओं ने महसूस किया कि मौजूदा कैलेंडर में कुछ गड़बड़ी है क्योंकि जुलियन कैलेंडर के मुताबिक वर्ष में 365.25 दिन होते थे और जबकि वास्तविक वर्ष था 365.2422 दिन इसलिए 323 ईस्वी में शीतकालीन अयनांत (बड़ा दिन ) 21 दिसबंर को था जो 1582 ईस्वी में यह दस दिनों पहले हो गया । लिहाजा क्रिसमच और ठंड का कनेक्शन में गड़बड़ी हो गई तो पोप को कैलेंडर दुरुस्त करने की जिम्मेदारी दी गई । उस वक्त पोप थे ग्रेगोरी 8वें । उन्होंने 5 अक्टूबर 1582 को कैलेंडर प्रकाशित किया और उस दिन का नाम रखा शुक्रवार । भविष्य को लीप ईयर के लिए जो 400 से विभाज्य नहीं थे उन्हें लीप वर्ष में नहीं गिना जाना तय हुआ और 400 वर्षों में लीप वर्षों की संख्या घटाकर 97 कर दी गई । इस प्रकार कैलेंडर वर्ष की लंबाई 365.2425 दिन हो गई । यह त्रुटी 3300 वर्षों में केवल दिन है ।
पोप ग्रेगोरिन के कैलेडंर को यूरोप के कैथोलिक देशों ने तो अपना लिया लेकिन क्रिश्चिन मुल्कों मसलन ब्रिटेन इसे अपनाया 1752 ईस्वी में , क्योंकि उस दिनों तक त्रुटी 11 दिनों की हो गई थी इसलिए 3 सितंबर को 14
सितंबर के तौर पर नामित कर दिया गया था । चीन, अल्बानिया ने 1912, बल्गेरिया ने 1916, सोवियस रुस ने 1918, रोमानिया,ग्रीस ने अपनाया।
वर्ल्ड कैलेंडर की मांग
हालांकि 18वीं सदी तक पूरी दुनिया में ग्रेगोरियन कैलेंडर पहुंच चुका था मगर पूरी दुनिया का कैलेंडर एक हो इसकी मांग पहली बार हुई 1887 ईस्वी में ईटली के खगोलविद आर्मेलिनि द्वारा । वर्ल्ड कैलेंडर एसोशिएशन की
स्थापना न्यूयॉर्क में हुई । ग्रेगोरियन कैलेंडर के चलन में आने के बाद भी इसको लेकर बहुत विवाद था । मिसाल के तौर पर महीने के दिन 28 और 31 थे, तिमाही 90 से 92 दिनों का था, छमाही भी 180-182 दिनों का था ।
महीने के काम के दिनों में भी कभी 24 तो कभी 27 दिन रहते थे जिसको लेकर लोगों में विवाद था । इसे दूर करने के लिए 1834 में इटली के खगोलविद पेड्रे एबे मास्ट्रोफिनी ने तेरह महीनों का कैलेंडर बनाया , मशहूर दार्शनिक अगस्त काम्टे ने इसकी वकालत भी की मगर ये विफल रहा ।
दुनिया भर के खगोलविदों ने एक बार तो ये तय कर ही लिया था कि साल की शुरआत हर बार संडे यानि रविवार से ही तो जिसे वर्ल्ड्स डे कहा जाए । यानि पहली जनवरी हर बार वर्ल्ड्स डे ही कहलाए । यहां ये भी जानकारी
बेहद दिलचस्प है कि पोप ग्रेगोरी 8वें ने लीप ईयर तय पहली बार नहीं किया था सबसे सटीक लीप ईयर की गणना मशहूर शायर उमर खय्याम ने की थी मगर वो जटिल थी जबकि ग्रेगोरी गणना में 3300 साल में ही एक बार त्रुटी आ रही थी।
कैलेंडर और आर्यभट्ट
कैलेंडर कथा में अब कहानी भारत की । बहुत कम ही लोग ही ये जानते हैं कि पूरी दुनिया में एक जैसे कैलेंडर की पैरवी सबसे पहले भारत ने ही संयुक्त राष्ट्र संघ में की थी । मशहूर वैज्ञानिक मेघानंद साहा ने यूनेस्को के 18वें
आर्थिक और सामाजिक सेशन में इसका प्रस्ताव रखा । पंडित जवाहर लाल नेहरू ने भारत में कैलेंडर रिफॉर्म कमेटी बनाई थी जिसके अध्यक्ष थे डॉक्टर एमएन साहा । नेहरु ने कैलेंडर रिफॉर्म कमेटी को 18 फरवरी को
लिखा कि भारत में फिलहाल 13 कैलेंडर्स का प्रचलन है जिसके आधार पर सामाजिक और धार्मिक कार्य होते हैं हमें एक ऐसे कैलेंडर की जरुरत है जो वैज्ञानिक हो । भारत में अलग-अलग क्षेत्रों में अपने अपने कैलेंडर चलते हैं । माना जाता है कि कुल 13 कैलेंडर के हिसाब से हिन्दुस्तान के लोग अपना धार्मिक सामाजिक कार्य करते आ रहे हैं । महान खगोलविद आर्यभट्ट भारतीय कलैंडर या तीथि निर्धारण में महान नाम है । उन्होंने सबसे पहले बताया कि एक वर्ष में 365.25875 दिन होते हैं । आर्यभट्ट ने ही सबसे पहले महायुग का निर्धारण कर कलियुग का समय निर्धारण किया जिसके मुताबिक 3102 साल
पहले कलियुग की शुरुआत हुई आज की तारीख के हिसाब से 17-18 फरवरी कलियुग एक वर्ष पूरा करता है । बाद में ब्रह्मगुप्त ने इसमें सुधार करते हुए कल्प का निर्धारण किया । कल्प यानि दुनिया बनाने वाले ब्रह्मा का
दिन । ब्रह्मगुप्त के अनुसार एक वर्ष में 365.25844 दिन होते हैं। आर्यभट्ट ने एक दिन को अहर्गण कहा । आज भी पुरातात्विक खोजों, खगोलविद्या के शोधकर्ताओं आर्यभट्ट द्वारा तय अहर्गण द्वारा ही सही काल का पता चलता है । शुरुआती सभ्यता में कैलेंडर की जानकारी तो नहीं मिलती है लेकिन ऋगवेद में सूर्य, चंद्रमा कुछ ग्रह और ऋुतओं की जानकारी प्राप्त होती मगर कैलेंडर वर्ष का पता यहां नहीं चलता । बहुत बाद में अशोक के साम्राज्य में कुछ हद इसके सबूत मिलते हैं। वेदांग ज्योतिष को कैलेंडर के
तौर पर इतिहासकारों ने माना है क्योंकि इस पर किसी भी बाहरी कैलेंडर का प्रभाव नहीं पड़ा । 400 ईस्वी तक वेदांग ज्योतिष के मुताबिक हिन्दुस्तान चलता रहा । 400 ईस्वी से 1200 ईस्वी तक पूरा भारत सिद्धांत ज्योतिष के हिसाब से अपना कैलेंडर बनाता रहा और शक काल के मुताबिक गणनाएं होती रही । बाद में मुस्लिम आक्रमणकारियों के प्रभाव से हिजरी कैलेंडर का प्रचलन हुआ लेकिन समस्त भारत में इसका असर नहीं था ।
अकबर ने 1584 में चंद्रमा आधारित हिजरी कैलेंडर को खत्म करने की कोशिश कर सूर्य आधारित ईरानी कैलेंडर तारीख ए इलाही लागू करने की कोशिश तो की मगर कामयाबी हासिल नहीं हुई । यह कैलेंडर 1630 तक ही चल पाया । बाद में 1757 में अंग्रेजों के आने के बाद ग्रेगोरियन कैलेंडर का इस्तेमाल तो होने लगा मगर भारत ने कभी भी अपना सामाजिक और धार्मिक कार्य शक कैलेंडर या सूर्य सिद्धांत या सिद्धांत ज्योतिष की बताई तीथियों और माह से करता रहा ।
विवेक सिन्हा