रांची.. अगर आप का दिल बाईं तरफ है तो आपको जोरम’ जरुर देखनी चाहिए । देवाशीष मखीजा निर्देशित और मनोज वाजपेयी की लीड रोल वाली मूवी को देखने के बाद दर्शक का दिल जरुर धड़केगा । इसलिए धड़केगा क्योंकिइसमें जान है , जान इसलिए है क्योंकि इसमें जमीन की कहानी है । अपनी जमीन नहीं , सबकी । हमारी भी आपकी भी । जोरम देखने से पहले विल स्मीथ की ‘इमैंसिपिकेशन’ देखी , अमेरिका के उस स्लेव यानि गुलाम की कहानी जिसकी तस्वीर पहली बार किसी अखबार में छपी जिसके बाद ही दुनिया ने जाना की गुलामों से किस तरह का बर्ताव होता रहा है । देवाशीष की जोरम एंटोन फुकाव की ‘इमैंसिपिकेशन’ के मुकाबले कम नही है और वाजपेयी ने विल स्मिथ को जबरदस्त टक्कर दी है । दसरु यानि मनोज वाजपेयी की गोद में छोटी सी बच्ची जोरम के सफर को कैमरे में जिस तरह से कैद किया गया है उसे देखने के बाद हर सीन दर्शकों के सीने में समा जाएगा । पहला दृश्य जिसमें झुले पर वानू झूलती है और दसरू नागपुरी गीत गुनगुनाता है वहा जो सिनेमाई परफेक्शन शुरु होता है वो दसरु के जंगल में गायब होने तक बना रहता है । मनोज वाजपेयी के कम डॉयलॉग्स सिनेमा को धीमा नहीं बल्कि दर्शकों को अंदर से उत्तेजित करने के लिए काफी है । दसरू कम बोलता है, मगर जो बोलता है उसे सुनने के बाद रोंगटे खड़े हो जाते हैं । ठीक उसी तरह से जैसे देवाशीष के ‘भोंसले’ में मनोज वाजपेयी ने एक्टिंग की थी । त
जोरम के लिए देवाशीष की मेहनत इसी से नजर आती है की है कि झारखंड का वो इलाका पर्दे पर उतर आया जो आज भी ऐसा ही है । जिस चंदवा की बात हो रही है वो दशकों से बॉक्साइट की धूल में ऐसा ही मरन्नासन है जैसा की ‘जोरम’ दिखा । हाट-बाजार, बोली, पहनावा यहां तक की मिट्टी तक में आपको झारखंड ही नजर आएगा । माओवादी बनना, माओवादी से आजादी और अनजाने में फिर उसी रास्ते पर निकल पड़ना जहां से सफर की शुरुआत होती है यह सब कहानी झारखंड की दास्तां हैं । हर उस ग्रामीण की जो जिसकी जमीन चली गई और जो अपनी ही जमीन में मजदूर बन गया । प्रगति स्टील का वो कार्टन डिवलपमेंट पर गहरा व्यंग है। मनोज वाजपेयी ने इस फिल्म के लिए जो मेहनत की है उसे करने के लिए अभिनय के प्रति समर्पण चाहिए। फुलो कर्मा के तौर पर स्मिता तांबे ने तो कमाल कर दिया है । स्मिता तांबे के बोलने के अंदाज से कोई झापरखंडी कह ही नहीं सकता कि वो महाराष्ट्र से हैं । दूसरी ओर मुंबई पुलिस के रत्नाकर का अभिनय निभाते जीशान अय्यूब के चेहरे पर हर वक्त दिखते तनाव के बहाने शायद देवाशीष ने यह दर्शाने की कोशिश की है कि यहां सबकुछ ठीक नहीं ।
हांलाकि मुख्यधारा की मीडिया और दाईं तरफ से सोचने वाले फिल्म समीक्षकों ने जोरम की उपेक्षा की, मगर जिसने जोरम देखी उसने दूसरों को जरुर देखने की हिदायत की । झारखंड के सिनेमाघरों में फिल्म लगी और उतर भी गई मगर अमेजन प्राइम पर देखी जा सकती है । खासतौर से झारखंडियों को तो जरुर देखनी चाहिए । देखनी तो उन्हें भी चाहिए जो इन दिनों ‘आदिवासियों जैसा टच’ पर ज्ञान दे रहे हैं ।