(परमहंस योगानंद और उनके गुरु श्रीयुक्तेश्वर गिरि की महासमाधि पर विशेष)
रांची। भारत भूमि आदि काल से ही योगियों व ऋषि-मुनियों की जन्म-शरण और तपोस्थली रही है। भगवान श्री कृष्ण, महावतार बाबाजी, लाहिड़ी महाशय, श्रीयुक्तेश्वर गिरि और श्री श्री परमहंस योगानंद की परंपरा के संतों ने विश्व को क्रियायोग के रूप में एक ऐसी वैज्ञानिक तकनीक दी है जिससे कोई भी मानव अपनी आत्मा की अमरता के लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। ऐसे ही संत स्वामी श्रीयुक्तेश्वर गिरि और उनके शिष्य योगानंदजी की महासमाधि के दिवस भी आसपास पड़ते हैं। योगानंदजी ने 7 मार्च, 1952 को शरीर त्याग कर महासमाधि में प्रवेश किया था और उनके गुरु श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने 9 मार्च, 1936 को। योगानंदजी ने अमेरिका के लॉस एन्जिलिस में शरीर त्याग करने के बाद यह प्रमाणित कर दिया था कि वह जीवन में ही नहीं अपितु मृत्यु में भी योगी ही थे।
योगानंदजी की विश्व विख्यात पुस्तक ‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी’ के अनुसार योगानंदजी का जन्म 5 जनवरी, 1893 को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर शहर में हुआ था। बाल्यकाल से ही ईश्वर के प्रति उनमें अनंत आस्था और आकर्षण था। पिता भगवतीचरण घोष रेलवे में एक बड़े अधिकारी थे, मां ज्ञानप्रभा गृहणी थी। दोनों ने ही काशी के महान संत श्यामाचरण लाहिड़ी से क्रियायोग की दीक्षा प्राप्त की थी। योगानंद जब शिशु थे उस समय लाहिड़ी महाशय ने उनको अपनी गोद में लेकर आध्यात्मिक आशीर्वाद के रूप में उनके ललाट पर हाथ रख उनकी मां से कहा था कि तुम्हारा पुत्र एक योगी होगा। वह एक आध्यात्मिक इंजन बनकर अनेक आत्माओं को ईश्वर के साम्राज्य में ले जाएगा।
1915 में कोलकाता विश्वविद्यालय से स्नातक की उपाधि प्राप्त करने के पश्चात योगानंदजी को उनके गुरू श्रीयुक्तेश्वर गिरि ने सन्यास की दीक्षा दी। श्रीयुक्तेश्वर भी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। दीक्षा के समय उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि योगानंदजी के जीवन का विशिष्ठ उद्देश्य भारत के प्राचीन योग विज्ञान का विश्व में प्रसार करना होगा। 1920 में योगानंद अमेरिका के बोस्टन शहर में धार्मिक उदारवादियों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लेने गए। बाद में उन्होंने अमेरिका में सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप (एसआरएफ़) और भारत में योगदा संत्संग सोसाईटी ऑफ़ इंडिया (वाईएसएस) की स्थापना की। ये संस्थाएँ आज भी धर्म और संप्रदाय से ऊपर उठ कर क्रियायोग विज्ञान को अपनाने के इच्छुक हर आकांक्षी मानव के लिए कार्यरत हैं।
7 मार्च 1952 को लॉस एंजिल्स में महासमाधि के समय परमहंस योगानंदजी का पार्थिव शरीर जैसे तरोताज़ा था कृ 20 दिन बाद, 27 मार्च को भी उसकी स्थिति वैसी ही थी। इस बात की पुष्टि लॉस एन्जिलिस के फॉरेस्ट लॉन मैमोरियल पार्क (जहाँ उनका पार्थिव शरीर अस्थायी रूप से रखा गया है) के कर्मचारियों ने भी की जब उन्हें इस बात पर विस्मय हुआ कि काँच के आवरण से निरीक्षण करने पर उनके शरीर में और त्वचा पर किसी प्रकार की विक्रिया या दुर्गंध नहीं पाई गई। वहां के निदेशक हैरी टी. रोंवे ने एक प्रमाण पत्र जारी किया जिसके मुताबिक “…मृत्यु के बीस दिन बाद भी उनके शरीर में किसी प्रकार की विक्रिया नहीं दिखाई पड़ी। …न तो त्वचा के रंग में किसी प्रकार के परिवर्तन के संकेत थे और न शरीरतन्तुओं में शुष्कता ही आयी प्रतीत होती थी। शवागार के वृत्ति-इतिहास से हमें जहाँ तक विदित है, पार्थिव शरीर के ऐसे परिपूर्ण संरक्षण की अवस्था अद्वितीय है।”
परमहंस योगानंदजी की देह की इस अवस्था ने प्रमाणित कर दिया कि वह जीवन में भी योगी रहे और मृत्यु में भी।