भारतीय लाख संस्थान, रांची से जमशेदपुर जाते वक्त रास्ते में इस संस्थान के बाहर लगा बोर्ड कई बार बदला । सौ वर्षों के सफर में संस्थान ने भले ही अपना नाम कई बार बदल लिया हो लेकिन ना तो लाख का इस्तेमाल कम हुआ और ना ही इसके उत्पादन का तरीका । वही कुसुम और बेर के पेड़ और वही झारखंड के जंगल और आदिवासी-मूलवासी का जीविका का एक साधन । झारखंड के लोगों को भले ही इस संस्थान के होने पर गौरव का एहसास नहीं हो लेकिन पूरी दुनिया में भारतीय लाख की धाक है औऱ झारखंड में तो भारत में उत्पादन वाले लाख का साठ फीसदी हिस्सेदारी है ।
आदिवासियों ने दुनिया को सिखाया लाख का इस्तेमाल
जी हां साठ फीसदी । झारखंड की धरती से कोयला और सोना ही नहीं बल्कि इस धरती पर लगे वृक्षों में पलने वाले ऐसे कीड़ों से निकलने वाला गोंद निकाल कर दो जून के भात का जुगाड़ करने वाले आदिवासी भले ही इससे बने चॉकलेट का स्वाद कभी नहीं चखा हो लेकिन झारखंडी लाख के बिना अमेरिकी चॉकलेट और कैंडी का स्वाद अधूरा है । चेहरे की सुंदरता में इस्तेमाल होने वाली कॉस्मेटिक , दवाइयों, फर्नीचर की चमक के साथ न जाने कितनी चीजों में इसका इस्तेमाल होता है ।
कैसे बनता है और कहां आत है लाख ?
अधिकतर लोगों को यह पता नहीं होता कि शेलैक (Shellac) क्या है या यह कहाँ से आता है। शेलैक एक प्राकृतिक, जैविक राल हैजो एक कीट, लैकसिफर लक्का (Laccifer Lacca), से प्राप्त होता है, जिसका आकार एक सेब के बीज के बराबर होता है। यहकीट भारत और थाईलैंड के कुछ विशेष पेड़ों पर रहता है और अपने प्रजनन चक्र के दौरान इन पेड़ों की टहनियों से रस चूसकर भोजनकरता है। यह कीट एक एम्बर रंग का राल जैसा पदार्थ छोड़ता है जिसे ‘लैक‘ कहा जाता है। यह शब्द संस्कृत के शब्द ‘लक्ष‘ सेआया है, जिसका अर्थ है एक लाख।
वेदों में लाख का जिक्र
अथर्ववेद, जो भारत के प्राचीन ऋषियों की ज्ञान–विज्ञान का प्रतीक है, हजारों वर्ष अथर्ववेद में स्पष्ट रूप से बताया गया है कि लाहऔर लाह रंग का उपयोग प्रभावी और मूल्यवान औषधि के रूप में किया जाता था। वेद के अनुसार, पानी के साथ बनाए गए लाह केअर्क, जिसमें मुख्य रूप से लाह का रंग या लैकैइक एसिड होता है, को खुले घावों पर तेजी से उपचार और ऊतक पुनर्जनन के लिएव्यापक रूप से उपयोग किया जाता था। लाह का उपयोग टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने में भी सामान्य था।
औषधियों में होता है इस्तेमाल
वेद के अनुसार लाह के पेस्ट की एक स्लरी, जो मुख्य रूप से लाह रंग होता था, को पानी में मिलाकर घी और दूध के साथ मिलायाजाता था, जिसे बीमार या घायल व्यक्ति अक्सर स्वास्थ्य लाभ के लिए सेवन करते थे। पांडुलिपि में उल्लेख है कि लाह का रंग नकेवल खुले घावों पर उपयोग करने के लिए सुरक्षित था, बल्कि इसे स्वास्थ्य और ऊर्जा पुनः प्राप्त करने के लिए अक्सर मौखिक रूपसे लिया जाता था।
लाक्षागृह में हुआ था लाख का इस्तेमाल
अथर्ववेद का एक भाग ‘लक्षा‘ शीर्षक से है, जिसमें लाह, लाह कीट, लाह के औषधीय उपयोग और एक स्त्री लाह कीट के लिए कीगई प्रार्थना का वर्णन किया गया है, जिसे एक सुंदर युवा कन्या के रूप में चित्रित किया गया है। यह उल्लेखनीय है कि उन प्राचीनदिनों में भी, लाह कीट की जैविकी के बारे में एक सटीक ज्ञान उपलब्ध था।
पूरी दुनिया में झारखंड के लाख की डिमांड
अथर्ववेद से लेकर चीन यात्रियों ,आइन ए अकबरी और यूरोपियों यात्रियों तक ने भारत में लाख के इस्तेमाल और उपयोगिता के बारे में बखान किया है । झारखंड के लोग भले इसको लेकर ज्यादा उत्साहित नहीं रहते हों लेकिन दुनिया को खूबसूरत और स्वादिष्ठ बनाने में यहां के लाख और आदिवासियों ने बड़ा योगदान दिया है ।
विवेक सिन्हा